#पवित्र_श्रीमद्भगवत_गीता_जी_का_ज्ञान_श्री_कृष्णजी_ने_नहीं_अपितु_काल_ने_दिया_है।
पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति वितरण पर विवाद था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? कितने ही बच्चे अनाथ हो जाऐंगे? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में क्या पता कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्र दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी(क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा। पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। श्री कृष्ण जी वापिस आए, सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हें राज्य चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं।
इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी
ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।
आओ विचार करें :- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्रा के मैदान में पवित्रा गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।
जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवर्त्त हुआ हूँ। फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुन कह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप
का ही गुणगान पवित्रा वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहबाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान ! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ।
अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्रा गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘
उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत् प्रवेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है। क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों
की सभा में पहले ही दिखा चुके थे।
दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्रा गीता जी को बोलने वाला काल(ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्र को तो दूर-दूर क्षेत्र के स्त्री तथा पुरुष तड़फा करते थे।
यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25 में है जिसमें गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) विद्यान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य की तरह किसी के सामने प्रकट नहीं होता। मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ।
उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।

‘‘विराट रूप क्या है ?’’
विराट रूप : आप दिन के समय या चाँदनी रात्रा में जब आप के शरीर की छाया छोटी लगभग शरीर जितनी लम्बी हो या कुछ बड़ी हो, उस छाया के सीने वाले स्थान पर दो मिनट तक एक टक देखें, चाहे आँखों से पानी भी क्यों न गिरें। फिर सामने आकाश की तरफ देखें। आपको अपना ही विराट रूप दिखाई देगा, जो सफेद रंग का आसमान को छू रहा होगा। इसी प्रकार प्रत्येक मानव अपना विराट रूप रखता है। परन्तु जिनकी भक्ति शक्ति ज्यादा होती है, उनका उतना ही तेज अधिक होता जाता है। इसी प्रकार श्री कृष्ण जी भी पूर्व भक्ति शक्ति से सिद्धि युक्त थे, उन्होंने भी अपनी सिद्धि शक्ति से अपना विराट रूप प्रकट कर दिया, जो काल के तेजोमय शरीर(विराट) से कम
तेजोमय था। तीसरी बात यह सिद्ध हुई कि पवित्रा गीता जी बोलने वाला प्रभु काल सहबाहुअर्थात् हजार भुजा युक्त है तथा श्री कृष्ण जी तो श्री विष्णु जी के अवतार हैं जो चार भुजा युक्त हैं। श्री विष्णु जी सोलह कला युक्त हैं तथा श्री ज्योति निरंजन काल भगवान एक हजार कला युक्त है। जैसे एक बल्ब 60 वाट का होता है, एक बल्ब 100 वाट का होता है, एक बल्ब 1000
वाट का होता है, रोशनी सर्व बल्बों की होती है, परन्तु बहुत अन्तर होता है। ठीक इसी प्रकार दोनों प्रभुओं की शक्ति तथा विराट रूप का तेज भिन्न-भिन्न था।
इस तत्वज्ञान के प्राप्त होने से पूर्व जो गीता जी के ज्ञान को समझाने वाले महात्मा जी थे, उनसे प्रश्न किया करते थे कि पहले तो भगवान श्री कृष्ण जी शान्ति दूत बनकर गए थे तथा कहा था कि युद्ध करना महापाप है। जब श्री अर्जुन जी ने स्वयं युद्ध करने से मना करते हुए
कहा कि हे देवकी नन्दन मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूँ। सामने खड़े स्वजनों व नातियों तथा सैनिकों का होने वाला विनाश देख कर मैंने अटल फैसला कर लिया है कि मुझे तीन लोक का राज्य भी प्राप्त हो तो भी मैं युद्ध नहीं करूँगा। मैं तो चाहता हूँ कि मुझ निहत्थे को दुर्योधन आदि तीर से मार डालें, ताकि मेरी मृत्यु से युद्ध में होने वाला विनाश बच जाए। हे श्री कृष्ण! मैं युद्ध न करके भिक्षा का अन्न खाकर भी निर्वाह करना उचित समझता हूँ। हे कृष्ण ! स्वजनों को मारकर तो पाप को ही प्राप्त होंगे। मेरी बुद्धि काम करना बंद कर गई है। आप हमारे गुरु हो, मैं आपका शिष्य हूँ। आप जो हमारे हित में हो वही दीजिए। परन्तु मैं नहीं मानता हूँ कि
आपकी कोई भी राय मुझे युद्ध के लिए राजी कर पायेगी अर्थात् मैं युद्ध नहीं करूँगा। (प्रमाण
पवित्रा गीता जी अध्याय 1 श्लोक 31 से 39, 46 तथा अध्याय 2 श्लोक 5 से 8)
श्री कृष्ण जी में प्रवेश काल बार-बार कह रहे हैं कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा, या युद्ध जीत कर पृथ्वी के राज्य को भोगेगा, आदि-आदि कह कर ऐसा भयंकर विनाश करवा डाला जो आज तक के संत-महात्माओं तथा सभ्य लोगों के चरित्रा में ढूंढने से भी नहीं मिलता है। तब वे नादान गुरु जी(नीम-हकीम) कहा करते थे कि अर्जुन क्षत्रा धर्म को त्याग रहा था। इससे क्षत्रित्व को हानि तथा शूरवीरता का सदा के लिए विनाश हो जाता। अर्जुन को क्षत्रा धर्म पालन करवाने के लिए यह महाभारत का युद्ध श्री कृष्ण जी ने करवाया था। पहले तो मैं उनकी इस नादानों वाली कहानी से चुप हो जाता
था, क्योंकि मुझे स्वयं ज्ञान नहीं था।
श्री कृष्ण सहित सर्व यादवों का अन्तिम संस्कार कर अर्जुन को छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) चले गए। पीछे से अर्जुन द्वारिका की स्त्रियों को लिए आ रहा था। रास्ते में जंगली लोगों ने सर्व गोपियों को लूटा तथा कुछेक को भगा ले गए तथा अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के हाथ में वही गांडीव धनुष था जिससे महाभारत के युद्ध में अनगिन हत्याऐं कर डाली थी,
वह भी नहीं चला। तब अर्जुन ने कहा कि यह श्री कृष्ण वास्तव में झूठा तथा कपटी था। जब युद्ध में पाप करवाना था तब तो मुझे शक्ति प्रदान कर दी, एक तीर से सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराता था और आज वह शक्ति छीन ली, खड़ा-खड़ा पिट रहा हूँ। इसी विषय में पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब (कविर्देव) जी का कहना है कि श्री कृष्ण जी कपटी व झूठे नहीं थे। यह सर्व छल
काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) कर रहा है। जब तक यह आत्मा कबीर परमेश्वर(सतपुरुष) की शरण में पूरे सन्त(तत्वदर्शी) के माध्यम से नहीं आ जाएगी, तब तक काल इसी तरह कष्ट पर कष्ट देता रहेगा। पूर्ण जानकारी तत्वज्ञान से होती है।
अन्य प्रमाण :- (1) कुछ समय उपरान्त श्री युधिष्ठिर जी को भयंकर स्वपन आने लगे। श्री कृष्ण जी से कारण तथा समाधान पूछा तो बताया कि तुमने युद्ध में जो पाप किए हैं वह नर संहार का दोष तुम्हें दुःख दाई हो रहा है। इसके लिए एक यज्ञ करो। श्री कृष्ण जी के मुख
कमल से यह वचन सुन कर श्री अर्जुन को बहुत दुःख हुआ तथा मन ही मन विचार करने लगा कि भगवान श्री कृष्ण जी पवित्रा गीता बोलते समय तो कह रहे थे कि अर्जुन तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा, तूं युद्ध कर ले(पवित्रा गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। यदि युद्ध में मारा भी गया तो स्वर्ग का सुख भोगेगा, अन्यथा युद्ध में जीत कर पृथ्वी के राज्य का आनन्द लेगा, तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू हैं। अर्जुन ने विचार किया कि जो समाधान दुःख निवारण का श्री कृष्ण जी ने बताया है इसमें करोड़ों रूपया व्यय होना है। जिससे बड़े भाई युधिष्ठिर का कष्ट निवारण होगा। यदि मैं श्री कृष्ण जी से वाद-विवाद करूंगा कि आप पवित्रा गीता जी का ज्ञान देते समय तो कह रहे थे कि तुम्हें पाप नहीं लगेगा। अब उसके विपरित कह रहे हो। इससे मेरा बड़ा भाई
यह न सोच बैठे कि करोड़ों रूपये के खर्च को देख कर अर्जुन बौखला गया है तथा मेरे कष्ट निवार्ण से प्रसन्न नहीं है। इसलिए मौन रहना उचित जान कर सहर्ष स्वीकृति दे दी तथा कहा कि हे भगवन् जैसा आप कहोगे वैसा ही होगा। श्री कृष्ण जी ने उस यज्ञ की तिथि निर्धारित कर दी। वह यज्ञ भी श्री सुदर्शन स्वपच के भोजन खाने से सफल हुई।
कुछ समय उपरान्त ऋषि दुर्वासा जी के शापवश सर्व यादव कुल का विनाश हो गया, श्री कृष्ण भगवान के पैर के तलुवे में एक शिकारी (जो त्रोतायुग में सुग्रीव के भाई बाली की ही आत्मा थी) ने विषाक्त तीर मार दिया। तब पाँचों पाण्डवों के घटना स्थल पर पहुँच जाने के उपरान्त श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप मेरे शिष्य हो मैं आप का धार्मिक गुरु भी हूँ। इसलिए मेरी अन्तिम
आज्ञा सुनो। एक तो यह है कि अर्जुन, द्वारिका की सर्व स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) ले जाना, क्योंकि यहाँ कोई नर नहीं बचा है तथा दूसरे आप सर्व पाण्डव राज्य त्याग कर हिमालय में साधना करके शरीर को गला देना। क्योंकि तुमने महाभारत के युद्ध के दौरान जो हत्याऐं की थी, तुम्हारे शीश पर वह पाप बहुत भयंकर है। उस समय अर्जुन अपने आप को नहीं रोक सका
तथा कहा प्रभु वैसे तो आप ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिऐं, परन्तु प्रभु यदि आज मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो मैं चैन से मर भी नहीं पाऊँगा। पूरा जीवन रोता रहूँगा। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन पूछ ले जो कुछ पूछना है, मेरा अन्तिम समय है। श्री अर्जुन ने आँखों में आंसू भर कर कहा कि प्रभु बुरा न मानना। जब आपने पवित्रा गीता जी का ज्ञान कहा था उस समय मैं युद्ध करने से मना कर रहा था। आपने कहा था कि अर्जुन तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। यदि युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त होगा और यदि विजयी हुआ तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा तथा तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। हमने आप ही की देख-रेख व
आज्ञानुसार युद्ध किया(प्रमाण पवित्रा गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। हे भगवन् ! हमारे तो एक हाथ में भी लड्डू नहीं रहा। न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग प्राप्ति हुई तथा अब राज्य त्यागने का आदेश आप दे रहे हैं, न ही पृथ्वी के राज्य का आनन्द ही भोग पाए। ऐसा छल युक्त व्यवहार करने में आपका क्या हित था? अर्जुन के मुख से यह वचन सुन कर युधिष्ठिर जी ने कहा कि
अर्जुन ऐसी स्थिति में जब कि भगवान अन्तिम स्वांस गिन रहे हैं आपका शिष्टाचार रहित व्यवहार शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन आज मैं अन्तिम स्थिति में हूँ, तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, आज वास्तविकता बताता हूँ कि कोई खलनायक जैसी और शक्ति है जो अपने को यन्त्रा की तरह नचाती रही, मुझे कुछ मालूम नहीं मैंने गीता में क्या बोला था। परन्तु अब मैं जो कह रहा हूँ वह तुम्हारे हित में है। श्री कृष्ण जी यह वचन अश्रुयुक्त नेत्रों से कह कर प्राण त्याग गए।
उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पवित्रा गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं कहा। यह तो काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) ने बोला था, जो इक्कीश ब्रह्मण्ड का स्वामी है।
(2) गीता अध्याय 10 श्लोक 9 से 11 में गीता ज्ञान दाता काल प्रभु कह रहा है कि जो श्रद्धालु मुझ ब्रह्म का ही निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं उनके अज्ञान को नष्ट करने के लिए मैं ही उनके अन्दर(आत्मभावस्थः) जीवात्मा की तरह बैठकर शास्त्रों का ज्ञान देता हूँ।

(3) श्री विष्णु पुराण(गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 2 श्लोक 21 से 26 में पृष्ठ 233 पर लिखा है कि देवताओं और राक्षसों के युद्ध में देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा है कि मैं राजर्षि शशाद के शरीर में कुछ समय प्रवेश करके असुरों का नाश करूंगा। (यहाँ पर विष्णु रूप में काल ब्रह्म बोल रहा है)
(4) श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 3 श्लोक 4 से 6 में पृष्ठ 242 पर लिखा है कि ‘‘नागेश्वरों की प्रार्थना स्वीकार करके श्री विष्णु जी ने कहा कि मैं मानधाता के पुत्रा पुरूकुत्स के शरीर में प्रवेश करके गन्धर्वों का नाश करूंगा। {यहाँ पर विष्णु रूप में काल ब्रह्म बोल रहा है}

विशेष विचार :- उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं बोला, यह तो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश होकर काल ब्रह्म(ज्योति निरंजन) ने बोला था।
क्योंकि वह उपरोक्त नियम से किसी भी योग्य व्यक्ति में प्रेतवत् प्रवेश करके अपना कार्य सिद्ध करता है। पश्चात् निकल जाता है जैसे अर्जुन में प्रवेश करके विरोधी सेना मार डाली पश्चात् निकल गया। फिर अर्जुन को जंगली व्यक्तियों ने मारा-पीटा। अर्जुन में पूर्व वाली शक्ति नहीं रही।
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